आइये जाने क्या है "सात फेरों के सात वचन और उनका महत्व"
वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार माने जाते हैं। विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है जिसके बिना मानव जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। हिंदू धर्म में विवाह संस्कार को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। पशुके स्तर पर न रहकर उच्चतम स्तर पर जाकर, विवाह जैसे रज-तमात्मक प्रसंग को भी सात्त्विक बनाकर, उन्हें अध्यात्म से जोडकर देवताओं के कृपाशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर हिंदु धर्म ने दिया है।
विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना।
पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं।
हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं।
क्या है सात फेरों के सात वचन ?
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!
(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)�्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्��� धन की आवश्यकता होती है। इस वचन द्वारा यह स्पष्ट है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
उर्दू साहित्य में स्त्री
चेतना
भारतीय परंपरा और स्त्री चेतना - परिवेश
19वीं शताब्दी, परिप्रेक्ष्य ‘कई चांद थे सरे आसमां’
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
स्त्री चेतना समकालीन हिंदी लेखन की केंद्रीय विषय-वस्तु है। जबकि इस विषय पर प्रचुरता से लिखा जा रहा है, तब इसमें पिष्टपेषण न हो और नए संदर्भों में बात की जाए, ऐसी रचनाओं पर पाठकों की दृष्टि गड़ना स्वाभाविक है। यहां बात एक ऐसी ही रचना की हो रही है, जिसका प्रथम संस्करण 2010 में हिंदी में पेंगुइन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित हुआ है। उपन्यास के रूप में यह रचना शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी द्वारा उर्दू में की गई, जो नरेश ‘नदीम’ द्वारा हिंदी में रूपांतरित होकर आई है। शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी ने मूलतः यह विशालकाय उपन्यास उर्दू में लिखा, जिसे अंग्रेजी में भी उन्होंने ही ‘द मिरर आफ ब्यूटी’ के नाम से पुनर्सृजित किया। फ़ारुक़ीजी भारतीय डाक विभाग से अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं। 15 जनवरी 1935 को जन्मे शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी को उर्दू साहित्य का टी एस इलियट कहा जाता है। वे उर्दू के शीर्षस्थ आलोचक हैं। आज़मगढ़ के मूल निवासी फ़ारुक़ीजी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम ए हैं। उन्होंने उर्दू की ‘शबख़ून’ मासिक पत्रिका का 40 वर्षों तक संपादन किया। उन्हें 1986 में उर्दू आलोचना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। वह पेंसिलवेनिया ��
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
स्त्री चेतना समकालीन हिंदी लेखन की केंद्रीय विषय-वस्तु है। जबकि इस विषय पर प्रचुरता से लिखा जा रहा है, तब इसमें पिष्टपेषण न हो और नए संदर्भों में बात की जाए, ऐसी रचनाओं पर पाठकों की दृष्टि गड़ना स्वाभाविक है। यहां बात एक ऐसी ही रचना की हो रही है, जिसका प्रथम संस्करण 2010 में हिंदी में पेंगुइन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित हुआ है। उपन्यास के रूप में यह रचना शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी द्वारा उर्दू में की गई, जो नरेश ‘नदीम’ द्वारा हिंदी में रूपांतरित होकर आई है। शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी ने मूलतः यह विशालकाय उपन्यास उर्दू में लिखा, जिसे अंग्रेजी में भी उन्होंने ही ‘द मिरर आफ ब्यूटी’ के नाम से पुनर्सृजित किया। फ़ारुक़ीजी भारतीय डाक विभाग से अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं। 15 जनवरी 1935 को जन्मे शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी को उर्दू साहित्य का टी एस इलियट कहा जाता है। वे उर्दू के शीर्षस्थ आलोचक हैं। आज़मगढ़ के मूल निवासी फ़ारुक़ीजी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम ए हैं। उन्होंने उर्दू की ‘शबख़ून’ मासिक पत्रिका का 40 वर्षों तक संपादन किया। उन्हें 1986 में उर्दू आलोचना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। वह पेंसिलवेनिया ��
�िश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र में
अंशकालिक प्रोफेसर रहे। मीर तक़ी ‘मीर’ के बारे में आपकी चार भागों में uuप्रकाशित पुस्तक ‘शेर-ए-शोर-अंगेज़’ को 1996 में
उपमहाद्वीप के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ‘सरस्वती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पद्मश्री फ़ारुक़ीजी को
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से डी लिट् की मानद उपाधि प्राप्त हुई। यही नहीं
आपको पाकिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा पुरस्कार ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’
भी प्राप्त हुआ।
फ़ारुक़ीजी का हिंदी रूपांतरित उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ 748 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय परंपरा की विविध विशेषताआंे को विवरण शैली में लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 18वीं-19वीं शताब्दी के भारत में संगीत, चित्रकारी, शिल्पकारी, बुनकरी, भाषा-विज्ञान एवं साहित्य की विविधवर्णी प्रचलित परंपराओं को सामने लाती हुई ग़ालिब, जौक़, दाग़ जैसे नामचीन शायरों की शायरी से सजी कथा को विस्तार से अपने उपन्यास में रखा है। इस उपन्यास में एक जगह फ़ारुक़ीजी लिखते हैं कि आज के लोग बहुत कुछ भूलते जा रहे हैं, कदाचित् इसीलिए वह विस्तार से वर्णन करते हुए उपन्यास में उपस्थित हुए हैं। इस कथा में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक चेतना का सुंदर संगुंफन हुआ है, किंतु कथा में वर�णनाधिक्य के कारण कहीं-कहीं पुनरावृŸिा हो गई है। जब वह उर्दू के ललित गद्य में हिंदी बोलियों का समाहार करते हुए लिखते हैं तो पाठक कथा के साथ-साथ नायाब गद्य से रूबरू होता हुआ चलता है। उपन्यास में आए हिंदी-उर्दू के प्रचलित मुहावरे और प्रसंगवश आए कुछ शब्दों की व्युत्पŸिा करते हुए उपन्यास की कथा बुनी गई है। उपन्यास में 50 वर्षों की कथा का क्षेत्र राजपूताना से लोकर कश्मीर, लाहौर, फ़र्रुख़ाबाद एवं दिल्ली तक फैला हुआ है। कथा का समय मुग़ल काल के पतन और ईस्ट इंडिया कंपनी के मज़बूत होने के संक्रमण काल तक फैला हुआ है। यह कथा केवल काल्पनिकता की उड़ान नहीं भरती, वरन् यह समसामयिक विमर्शों में से एक स्त्रीवादी लेखन में छाए हुए स्त्री प्रश्नों को लेकर ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से पाठक के सम्मुख उपस्थित होती है। उपन्यास की कथा नायिका प्रधान है। कथा नायिका वज़ीर ख़ानम विलक्षण सौंदर्य की धनी एवं सुरुचि साहित्य संपन्न है। उपन्यास की यह प्रधान पात्र वस्तुतः प्रसिद्ध उर्दू शायर दाग़ देहलवी की मां थी। वज़ीर के पूर्वज किशनगढ़ राजपूताना में रहते थे, जहां से उसके पूर्वजों में से मियां मख्सूसुल्ला बडगाम कश्मीर चले गए थे। मियां मख्सूसुल्लाह मुसलमान थे या हिंदू, कथाकार के लिए यह कहना मुश्किल था। मियां के दो पौत्र दाऊद और याक़ूब फ़र्रुख़ाबाद और दिल्ली आकर बस गए �र जेवर बनाने का काम करने लगे लेकिन ये भाई मराठा फ़ौज के साथ लड़ाई में कहीं खो गए। इनका एक बेटा यूसुफ बचा रहा, जिसका विवाह अक़बरी बाई की बेटी असग़री से हुआ। मुग़लों का सूर्य अवसान पर था और दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने पैर पसार चुकी थी, तब 1811 ई में तीसरी और सबसे छोटी बेटी के रूप में इन्हीं मुहम्मद यूसुफ नाम के सुनार के यहां वज़ीर ख़ानम का जन्म हुआ। कथाकार इस उपन्यास को किसी कथा से अधिक इतिहासकार की भांति कथा का आरंभ करता है। फ़ारुक़ीजी लिखते हैं ‘पर्दानशीन मुसलमान लड़की जो बज़ाहिर कहीं कस्बन (गणिका) या पेशेवर नचनी न थी, किस तरह और क्यों एक अंग्रेज के अधिकार तक पहुंची, इसके बारे किसी लिखित परंपरा या किसी चश्मदीद गवाह के बयान की बुनियाद पर तैयार किया हुआ ब्योरा नहीं मिलता।’ वज़ीर ख़ानम अपने जीवन में अपनी इच्छा और शर्तों से विवाह अथवा बिना विवाह किए हुए वर्तमान में चल रहे लिवइनरिलेशनशिप की तरह चार पुरुषों के साथ रही और चारों असमय कालकवलित हो गए। सर्वप्रथम वह एक अंग्रेज अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रही, जिससे उसके दो बच्चे हुए। ‘ज़्यादा संभावना यह है कि मार्स्टन ब्लेक उनकी ज़िंदगी में पहला मर्द था और उससे वज़ीर ख़ानम की मुलाक़ात देहली में हुई।’ वज़ीर के पिता और बड़ी बहिन स्वतंत्र विचारों के कारण उससे रुष्ट रहते, पर वह ब्लेक के साथ जयपुर मे बिना विवाह किए रहकर दो बच्चों की मां बनी। वहां महाराजा की हत्या के संदेह में भीड़ ने ब्लेक को मार दिया। बच्चों को ब्लेक की बहिन ने वज़ीर को नहीं दिया। वज़ीर जयपुर से दिल्ली आ गई। उसका दूसरा साहचर्य उर्दू के प्रतिष्ठित साहित्यकार मिर्ज़ा ग़ालिब के निकट संबंधी नवाब शमसुद्दीन अहमद खां से हुआ। वज़ीर नवाब के साथ विवाह करते हुए रही। उपन्यासकार ने जगह-जगह कथा में पात्रों द्वारा और कथा-वर्णन में संगीत की विविध राग-रागिनियों का नामोल्लेख करते हुए शे‘र और पद उद्धृत किए हैं। वह बड़ी बारीक़ी और विस्तार से वर्णनपरक कथा बुनते हुए कहता है ‘तालीम को समझना उसे ईजाद करने से कुछ ही कम बारीक़ी मांगता है।’ फ़ारुक़ीजी शिक्षा को बहुआयामी बनाने पर ज़ोर देते हैं, वे कहते हैं ‘तालीमनवीस को शायर, मुसव्विर, नर्तक, गायक सब कुछ होना चाहिए।’ शिक्षा के विविध स्वरूप हैं, किसी भी क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। वह एक पात्र से कहलवाते हैं ‘क्या तुम जानते हो कि जो सुन नहीं सकता, वह ज़्यादा अच्छा देख सकता है? लेकिन जो सुन नहीं सकता वह बोल नहीं सकता? और जो बोल नहीं सकता वह गा नहीं सकता, लेकिन वह नाच सकता है?’
उपन्यास में आशा-निराशा, प्रगतिशीलता और नारी संवेदना का प्रभावशाली अंकन ललित गद्य में किया गया है। उपन्यास में दृष्टव्य है कि ऊंचे दर्जे़ की कारीगरी वि���िध क्षेत्रों में उस समय देश में होती थी और उन सबका समाज में सम्मान था। आशावाद का एक उदाहरण दृष्टव्य है ‘ज़िंदगी के समंदर की लहरें हर जगह मोती बिखेरती हैं और इन आबदार मोतियों को मुट्ठियों को बटोर लेने वाले हुनरमंद नक़्क़ाश भी हर जगह हैं।’ निराशा - ‘शायरी जितनी मीठी और सजिल, ज़िंदगी उतनी ही कड़वी और कठिन है।’ उपन्यास में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का पार्थक्य नहीं है। सर्वत्र हिंदुस्तानी संस्कृति में पात्र रचे-बसे हैं। मुस्लिमों के साफ-सुथरे रहन-सहन से हिंदू तो हिंदुओं के देवी-देवताओं का प्रभाव मुस्लिमों पर हुआ दिखाया गया है। उपन्यास मेें फ़र्रुख़ाबाद के मुसलमान रस्मों और आदतों में हिंदुओं के बहुत क़रीब थे। हबीबा के एक भाई को सीतला मां अपनी गोद में चिरनिद्रा में सुला लेती है। उपन्यास में चित्रित प्रगतिशीलता याक़ूब के इस कथन में दृष्टव्य है ‘इन लड़कियों पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं। ये बालिग़ हैं और अपनी मर्ज़ी की मालिक। तुम इन्हें अपनी हवस का शिकार बनाकर कोठे पर बेचना चाहते हो तो यह हम न होने देंगे।’ दिल्ली में अपनी सबसे बड़ी बहिन द्वारा विवाह करने की बात पर वज़ीर कहती है ‘...बच्चे पैदा करें, शौहर और सास की जूतियां खाएं, चूल्हे-चक्की में जल-पिसकर वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएं।’ वज़ीर की बाज़ी कहती है ‘जबसे दुनिया बनी है औरतें इन्हीं कामों मे��� लगाईं गईं हैं। एक शरीफ़ाना राह है, एक कमीनों की राह है।’ वज़ीर जवाब देती है ‘बस भी करो ये शरीफ़ों, कमीनों की बातें। मर्द कुछ भी करते फिरें, उन्हें कोई कुछ भी न कहे और हम औरतें ज़रा ऊंचे सुर मंे भी बोल दे ंतो ख़ैला छŸाीसी कहलाएं।’ बाज़ी द्वारा महिलाओं का शर्म, हया, ममता, क़ुर्बानी देने का वास्ता देने पर वज़ीर कहती है ‘मेरी सूरत अच्छी है, मेरा ज़हन तेज है, मेरे हाथ-पांव सही हैं। मैं किसी मर्द से कम हूं? जिस अल्लाह ने मुझमें ये सब बातें जमा कीं, उसको कब गवारा होगा कि मैं अपनी काबिलियत से कुछ काम न लूं, बस चुपचाप मर्दों की हवस पर भेंट चढ़ा दी जाऊं?’
स्त्री और पुरुष के शाश्वत संबंधों को लेकर हुई बातचीत में उपन्यासकार कई प्रश्नों को उठाता है और उनके उŸारों को खोजने का प्रयास करता है। पुरुष के लिए स्त्री इज़्ज़त है और स्त्री के लिए पुरुष वारिस, लेकिन वारिस बनाने के लिए विवाह कहां आवश्यक है। इन शाश्वत सामाजिक प्रश्नों की कथाकार ने उपेक्षा नहीं की है। वज़ीर और उसकी बाज़ी में हुए वार्तालाप में आखि़रकार चिढ़ते हुए वज़ीर अपना निर्णय देती है ‘मुझे जो मर्द चाहेगा उसे चखूंगी; पसंद आएगा तो रखूंगी नहीं तो निकाल बाहर करूंगी। इसके बाद वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रहने लगती है। वज़ीर के एक अंग्रेज के साथ के अनुभवांे का वर्णन इस प्रसंग में
फ़ारुक़ीजी का हिंदी रूपांतरित उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ 748 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय परंपरा की विविध विशेषताआंे को विवरण शैली में लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 18वीं-19वीं शताब्दी के भारत में संगीत, चित्रकारी, शिल्पकारी, बुनकरी, भाषा-विज्ञान एवं साहित्य की विविधवर्णी प्रचलित परंपराओं को सामने लाती हुई ग़ालिब, जौक़, दाग़ जैसे नामचीन शायरों की शायरी से सजी कथा को विस्तार से अपने उपन्यास में रखा है। इस उपन्यास में एक जगह फ़ारुक़ीजी लिखते हैं कि आज के लोग बहुत कुछ भूलते जा रहे हैं, कदाचित् इसीलिए वह विस्तार से वर्णन करते हुए उपन्यास में उपस्थित हुए हैं। इस कथा में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक चेतना का सुंदर संगुंफन हुआ है, किंतु कथा में वर�णनाधिक्य के कारण कहीं-कहीं पुनरावृŸिा हो गई है। जब वह उर्दू के ललित गद्य में हिंदी बोलियों का समाहार करते हुए लिखते हैं तो पाठक कथा के साथ-साथ नायाब गद्य से रूबरू होता हुआ चलता है। उपन्यास में आए हिंदी-उर्दू के प्रचलित मुहावरे और प्रसंगवश आए कुछ शब्दों की व्युत्पŸिा करते हुए उपन्यास की कथा बुनी गई है। उपन्यास में 50 वर्षों की कथा का क्षेत्र राजपूताना से लोकर कश्मीर, लाहौर, फ़र्रुख़ाबाद एवं दिल्ली तक फैला हुआ है। कथा का समय मुग़ल काल के पतन और ईस्ट इंडिया कंपनी के मज़बूत होने के संक्रमण काल तक फैला हुआ है। यह कथा केवल काल्पनिकता की उड़ान नहीं भरती, वरन् यह समसामयिक विमर्शों में से एक स्त्रीवादी लेखन में छाए हुए स्त्री प्रश्नों को लेकर ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से पाठक के सम्मुख उपस्थित होती है। उपन्यास की कथा नायिका प्रधान है। कथा नायिका वज़ीर ख़ानम विलक्षण सौंदर्य की धनी एवं सुरुचि साहित्य संपन्न है। उपन्यास की यह प्रधान पात्र वस्तुतः प्रसिद्ध उर्दू शायर दाग़ देहलवी की मां थी। वज़ीर के पूर्वज किशनगढ़ राजपूताना में रहते थे, जहां से उसके पूर्वजों में से मियां मख्सूसुल्ला बडगाम कश्मीर चले गए थे। मियां मख्सूसुल्लाह मुसलमान थे या हिंदू, कथाकार के लिए यह कहना मुश्किल था। मियां के दो पौत्र दाऊद और याक़ूब फ़र्रुख़ाबाद और दिल्ली आकर बस गए �र जेवर बनाने का काम करने लगे लेकिन ये भाई मराठा फ़ौज के साथ लड़ाई में कहीं खो गए। इनका एक बेटा यूसुफ बचा रहा, जिसका विवाह अक़बरी बाई की बेटी असग़री से हुआ। मुग़लों का सूर्य अवसान पर था और दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने पैर पसार चुकी थी, तब 1811 ई में तीसरी और सबसे छोटी बेटी के रूप में इन्हीं मुहम्मद यूसुफ नाम के सुनार के यहां वज़ीर ख़ानम का जन्म हुआ। कथाकार इस उपन्यास को किसी कथा से अधिक इतिहासकार की भांति कथा का आरंभ करता है। फ़ारुक़ीजी लिखते हैं ‘पर्दानशीन मुसलमान लड़की जो बज़ाहिर कहीं कस्बन (गणिका) या पेशेवर नचनी न थी, किस तरह और क्यों एक अंग्रेज के अधिकार तक पहुंची, इसके बारे किसी लिखित परंपरा या किसी चश्मदीद गवाह के बयान की बुनियाद पर तैयार किया हुआ ब्योरा नहीं मिलता।’ वज़ीर ख़ानम अपने जीवन में अपनी इच्छा और शर्तों से विवाह अथवा बिना विवाह किए हुए वर्तमान में चल रहे लिवइनरिलेशनशिप की तरह चार पुरुषों के साथ रही और चारों असमय कालकवलित हो गए। सर्वप्रथम वह एक अंग्रेज अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रही, जिससे उसके दो बच्चे हुए। ‘ज़्यादा संभावना यह है कि मार्स्टन ब्लेक उनकी ज़िंदगी में पहला मर्द था और उससे वज़ीर ख़ानम की मुलाक़ात देहली में हुई।’ वज़ीर के पिता और बड़ी बहिन स्वतंत्र विचारों के कारण उससे रुष्ट रहते, पर वह ब्लेक के साथ जयपुर मे बिना विवाह किए रहकर दो बच्चों की मां बनी। वहां महाराजा की हत्या के संदेह में भीड़ ने ब्लेक को मार दिया। बच्चों को ब्लेक की बहिन ने वज़ीर को नहीं दिया। वज़ीर जयपुर से दिल्ली आ गई। उसका दूसरा साहचर्य उर्दू के प्रतिष्ठित साहित्यकार मिर्ज़ा ग़ालिब के निकट संबंधी नवाब शमसुद्दीन अहमद खां से हुआ। वज़ीर नवाब के साथ विवाह करते हुए रही। उपन्यासकार ने जगह-जगह कथा में पात्रों द्वारा और कथा-वर्णन में संगीत की विविध राग-रागिनियों का नामोल्लेख करते हुए शे‘र और पद उद्धृत किए हैं। वह बड़ी बारीक़ी और विस्तार से वर्णनपरक कथा बुनते हुए कहता है ‘तालीम को समझना उसे ईजाद करने से कुछ ही कम बारीक़ी मांगता है।’ फ़ारुक़ीजी शिक्षा को बहुआयामी बनाने पर ज़ोर देते हैं, वे कहते हैं ‘तालीमनवीस को शायर, मुसव्विर, नर्तक, गायक सब कुछ होना चाहिए।’ शिक्षा के विविध स्वरूप हैं, किसी भी क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। वह एक पात्र से कहलवाते हैं ‘क्या तुम जानते हो कि जो सुन नहीं सकता, वह ज़्यादा अच्छा देख सकता है? लेकिन जो सुन नहीं सकता वह बोल नहीं सकता? और जो बोल नहीं सकता वह गा नहीं सकता, लेकिन वह नाच सकता है?’
उपन्यास में आशा-निराशा, प्रगतिशीलता और नारी संवेदना का प्रभावशाली अंकन ललित गद्य में किया गया है। उपन्यास में दृष्टव्य है कि ऊंचे दर्जे़ की कारीगरी वि���िध क्षेत्रों में उस समय देश में होती थी और उन सबका समाज में सम्मान था। आशावाद का एक उदाहरण दृष्टव्य है ‘ज़िंदगी के समंदर की लहरें हर जगह मोती बिखेरती हैं और इन आबदार मोतियों को मुट्ठियों को बटोर लेने वाले हुनरमंद नक़्क़ाश भी हर जगह हैं।’ निराशा - ‘शायरी जितनी मीठी और सजिल, ज़िंदगी उतनी ही कड़वी और कठिन है।’ उपन्यास में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का पार्थक्य नहीं है। सर्वत्र हिंदुस्तानी संस्कृति में पात्र रचे-बसे हैं। मुस्लिमों के साफ-सुथरे रहन-सहन से हिंदू तो हिंदुओं के देवी-देवताओं का प्रभाव मुस्लिमों पर हुआ दिखाया गया है। उपन्यास मेें फ़र्रुख़ाबाद के मुसलमान रस्मों और आदतों में हिंदुओं के बहुत क़रीब थे। हबीबा के एक भाई को सीतला मां अपनी गोद में चिरनिद्रा में सुला लेती है। उपन्यास में चित्रित प्रगतिशीलता याक़ूब के इस कथन में दृष्टव्य है ‘इन लड़कियों पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं। ये बालिग़ हैं और अपनी मर्ज़ी की मालिक। तुम इन्हें अपनी हवस का शिकार बनाकर कोठे पर बेचना चाहते हो तो यह हम न होने देंगे।’ दिल्ली में अपनी सबसे बड़ी बहिन द्वारा विवाह करने की बात पर वज़ीर कहती है ‘...बच्चे पैदा करें, शौहर और सास की जूतियां खाएं, चूल्हे-चक्की में जल-पिसकर वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएं।’ वज़ीर की बाज़ी कहती है ‘जबसे दुनिया बनी है औरतें इन्हीं कामों मे��� लगाईं गईं हैं। एक शरीफ़ाना राह है, एक कमीनों की राह है।’ वज़ीर जवाब देती है ‘बस भी करो ये शरीफ़ों, कमीनों की बातें। मर्द कुछ भी करते फिरें, उन्हें कोई कुछ भी न कहे और हम औरतें ज़रा ऊंचे सुर मंे भी बोल दे ंतो ख़ैला छŸाीसी कहलाएं।’ बाज़ी द्वारा महिलाओं का शर्म, हया, ममता, क़ुर्बानी देने का वास्ता देने पर वज़ीर कहती है ‘मेरी सूरत अच्छी है, मेरा ज़हन तेज है, मेरे हाथ-पांव सही हैं। मैं किसी मर्द से कम हूं? जिस अल्लाह ने मुझमें ये सब बातें जमा कीं, उसको कब गवारा होगा कि मैं अपनी काबिलियत से कुछ काम न लूं, बस चुपचाप मर्दों की हवस पर भेंट चढ़ा दी जाऊं?’
स्त्री और पुरुष के शाश्वत संबंधों को लेकर हुई बातचीत में उपन्यासकार कई प्रश्नों को उठाता है और उनके उŸारों को खोजने का प्रयास करता है। पुरुष के लिए स्त्री इज़्ज़त है और स्त्री के लिए पुरुष वारिस, लेकिन वारिस बनाने के लिए विवाह कहां आवश्यक है। इन शाश्वत सामाजिक प्रश्नों की कथाकार ने उपेक्षा नहीं की है। वज़ीर और उसकी बाज़ी में हुए वार्तालाप में आखि़रकार चिढ़ते हुए वज़ीर अपना निर्णय देती है ‘मुझे जो मर्द चाहेगा उसे चखूंगी; पसंद आएगा तो रखूंगी नहीं तो निकाल बाहर करूंगी। इसके बाद वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रहने लगती है। वज़ीर के एक अंग्रेज के साथ के अनुभवांे का वर्णन इस प्रसंग में
हुआ है। पुरुषों के बारे में आमधारणा
होती है कि उन्हें अपनी इच्छा सर्वोपरि होती है,
किंतु किसी स्त्री की इच्छा और सुविधा
का ध्यान रखने में अंग्रेज हिंदुस्तानियों से कहीं आगे हैं। ब्लेक के साथ रहकर
वज़ीर में खुलापन आ जाता है, वह ब्लेक के साथ एक ही थाली में भोजन करती है। हिंदुस्तानी
पुरुष जहां स्त्री से माफी मांगने में अपना अनादर मानते हैं, वहीं जब ब्लेक वज़ीर
से अम सारे रे (आइ एम सारी) कहता तो वज़ीर को बहुत भला लगता। कथाकार ने इसी प्रसंग
में कई शब्दों का अंग्रेज उच्चारण दिया है।
वज़ीर अपने बच्चांे की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी शर्तों पर ब्लेक का घर छोड़ देती है। जयपुर से दिल्ली आकर वह सन् 1830 में विलियम फ्रेजर के यहां एक कवि सम्मेलन में जाती है। वहां देखकर फ्रेजर वज़ीर पर आसक्त हो जाता है, किंतु वज़ीर उसके लिए उदासीन है, जिससे फ्रेजर नाराज़ हो जाता है किंतु वज़ीर को इसकी परवाह नहीं। वह कहती है ‘वो अंखमुंदी और होंगी जो दो वक़्त की रोटी पर आबरू बेच देती हैं।’ इसी कवि सम्मेलन में मौजूद मिर्ज़ा ग़ालिब के रिश्तेदार नवाब अहमद खां से वज़ीर विवाह कर लेती है। वज़ीर और नवाब का शायराना संवाद चलता रहता है। नज़ाकत और नफ़ासत भरे वातावरण में दोनों की ज़िंदगी बसर हो रही होती है। मुग़लकालीन स्त्री की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का जो ध्यान इस कथा में ��
वज़ीर अपने बच्चांे की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी शर्तों पर ब्लेक का घर छोड़ देती है। जयपुर से दिल्ली आकर वह सन् 1830 में विलियम फ्रेजर के यहां एक कवि सम्मेलन में जाती है। वहां देखकर फ्रेजर वज़ीर पर आसक्त हो जाता है, किंतु वज़ीर उसके लिए उदासीन है, जिससे फ्रेजर नाराज़ हो जाता है किंतु वज़ीर को इसकी परवाह नहीं। वह कहती है ‘वो अंखमुंदी और होंगी जो दो वक़्त की रोटी पर आबरू बेच देती हैं।’ इसी कवि सम्मेलन में मौजूद मिर्ज़ा ग़ालिब के रिश्तेदार नवाब अहमद खां से वज़ीर विवाह कर लेती है। वज़ीर और नवाब का शायराना संवाद चलता रहता है। नज़ाकत और नफ़ासत भरे वातावरण में दोनों की ज़िंदगी बसर हो रही होती है। मुग़लकालीन स्त्री की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का जो ध्यान इस कथा में ��
�ेखा गया, वह विरल है।
वज़ीर सोचती है ‘मुझे जो मर्द
चाहेगा कोई ज़रूरी नहीं कि मैं भी उसे चाहूं। उपन्यास में जगह-जगह सुने हुए किंतु
अबूझे से शब्दों के अर्थ उपन्यासकार ने खोले हैं जैसे लनक्लॉट अंग्रेजी के लॉंग
क्लाथ का भाषारूप है।
हिंदुस्तानी और अंग्रेजी परंपरा के अंतर को उपन्यास में रेखांकित किया गया है। अंग्रेज नज़रें झुकाकर बात करने वालों को दग़ाबाज़ या बेईमान समझते हैं, वहीं हिंदी तहज़ीब में बड़ों से, अजनबियों से, क़रीबी अज़ीज़ों से आंख मिलाकर बात करने को असभ्य कहा जाता है। अंग्रेज पुरुष-स्त्री जहां कभी-कभी स्नानागार में एक साथ स्नान कर लेते हैं लेकिन हिंदुस्तानी परंपरा में यह ऐब है। अंग्रेज अपने नौकरों का कभी शुक्रिया अदा नहीं करते, जबकि हिंदुस्तानियों में पुराने नौकरों का शुक्रिया; बल्कि उनके पूरे सम्मान की रस्म हुआ करती थी। नवाब शम्सुद्दीन और वज़ीर के हमबिस्तरी प्रसंग में कथाकार ने हिंदुस्तानियों और अंग्रेजों के तौर-तरीक़ों को अलग-अलग दिखाया है। फ़ारुक़ीजी कामक्रिया के अंग-प्रत्यंगों का बिना सनसनी पैदा किए ऐसा बारीक़ वर्णन करते हैं कि पाठक के सामने समूचा दृश्य चित्र उपस्थित हो उठता है। दर्शक कैमरे से निकले फोटो और वीडियो के दृश्यों को तो ओझल कर सकता है, पर इन वर्णनों को पढ़ने में पाठक तनिक भी बेख्याल नहीं होता। नवाब साहब ��वज़ीर के दैहिक संबंध बनाने के बाद ही साथ रहने संबंधी भविष्य की योजनाएं तय होती हैं। वज़ीर ख़ानम से नवाब साहब का एक पुत्र 25 मई 1831 को पैदा हुआ, जिसे नवाब मिर्ज़ा नाम दिया गया और जो बाद में वास्तविक रूप में दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध शायर हुए।
विलियम फ्रेजर वज़ीर पर बुरी निगाह रखता, वह उसे बाज़ारू औरत समझता था। इससे नाराज़ होकर नवाब ने उसका क़त्ल करा दिया। इस अपराध में नवाब को फांसी दे दी जाती है।
स्त्री जीवन की विडंबना और विवशता तथा पारंपरिक छबि के बरक्स कथाकार ने वज़ीर के रूप में उसकी मज़बूती, स्वनिर्णय और आत्मनिर्भरता में चित्रित किया है। खालिस अरबी-फारसी के शेरों का अर्थ उपन्यास में जगह-जगह दिया गया है, फिर भी अनेक शब्दों का अर्थ पाठक को खोजना पड़ता है। इसका आशय है कि पाठक को हिंदुस्तानी शब्दों से सामान्यतः परिचित होना ही चाहिए। भाषा की रवानगी उपन्यास से जाती न रहे, शायद अनुवादक नरेश ‘नदीम’ ने इसीलिए मूल गद्य से छेड़खानी उचित न समझी हो।
विलियम फ्रेजर की हत्या होने के प्रसंग में फ़ारुक़ीजी बंदूकों का वर्णन करने लगते हैं। बंदूकों की कील और पुर्जों का वर्णन वे ऐसे करते हैं जैसे कोई आयुध निर्माणी कार्यशाला से होकर आए हों। संक्षिप्ताक्षरों का विस्तार करते हैं यथा डीबीबीएल का पूरा रूप है डबल बैरल्ड ब्रीच लोडिंग। हिंदी में जिसे दोनाली, क़राबीन या रिफल या दोगाड़ा कहते थे। बेधरमी इसे अंग्रेजो द्वारा भारत लाए जाने के कारण कहा गया। ‘भरमारू’ बंदूक में बारूद और गोली नाली की राह से भरी जाती थी। क़राबीन फ्रांसीसी बंदूक थी, जिसे अंग्रेजी और फ्रेंच में कारबाइन कहा जाता है। इन हथियारों को चलाने और उनकी मारक क्षमता सहित अन्य गुण-दोषों का वर्णन कथाकार ने इस प्रसंग में किया है। जिस क़रीमखां से नवाब शमसुद्दीन ने विलियम फ्रेजर की हत्या करवाई, उसे अंग्रेजों ने थर्ड डिग्री दी, फिर भी क़रीमखां ने शमसुद्दीन का नाम नहीं लिया। यद्यपि अंग्रेजों की अदालत ने 26 वर्षीय शमसुद्दीन अहमद को फांसी की सज़ा दे दी।
वज़ीर ख़ानम एक बार फिर विधवा हो गई। वह सोचती है यह दुनिया पुरुष की दासी और स्त्री की शत्रु है। यह ऐसा भंवरजाल है जिससे निकल पाना असंभव है। इस निराशा के बीच उसकी मंझली बाज़ी उम्दा ख़ानम उसको शिया समुदाय के आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली के साथ रखना चाहती है। इस प्रसंग में उम्दा का वज़ीर के साथ जो संवाद चलता है, वह स्त्री चेतना को मज़बूत तर्काें के साथ पाठक के सामने लाता है। वज़ीर, मंझली बाज़ी, जहांगीरा बेगम और आग़ा साहब की इच्छा और शर्त��
हिंदुस्तानी और अंग्रेजी परंपरा के अंतर को उपन्यास में रेखांकित किया गया है। अंग्रेज नज़रें झुकाकर बात करने वालों को दग़ाबाज़ या बेईमान समझते हैं, वहीं हिंदी तहज़ीब में बड़ों से, अजनबियों से, क़रीबी अज़ीज़ों से आंख मिलाकर बात करने को असभ्य कहा जाता है। अंग्रेज पुरुष-स्त्री जहां कभी-कभी स्नानागार में एक साथ स्नान कर लेते हैं लेकिन हिंदुस्तानी परंपरा में यह ऐब है। अंग्रेज अपने नौकरों का कभी शुक्रिया अदा नहीं करते, जबकि हिंदुस्तानियों में पुराने नौकरों का शुक्रिया; बल्कि उनके पूरे सम्मान की रस्म हुआ करती थी। नवाब शम्सुद्दीन और वज़ीर के हमबिस्तरी प्रसंग में कथाकार ने हिंदुस्तानियों और अंग्रेजों के तौर-तरीक़ों को अलग-अलग दिखाया है। फ़ारुक़ीजी कामक्रिया के अंग-प्रत्यंगों का बिना सनसनी पैदा किए ऐसा बारीक़ वर्णन करते हैं कि पाठक के सामने समूचा दृश्य चित्र उपस्थित हो उठता है। दर्शक कैमरे से निकले फोटो और वीडियो के दृश्यों को तो ओझल कर सकता है, पर इन वर्णनों को पढ़ने में पाठक तनिक भी बेख्याल नहीं होता। नवाब साहब ��वज़ीर के दैहिक संबंध बनाने के बाद ही साथ रहने संबंधी भविष्य की योजनाएं तय होती हैं। वज़ीर ख़ानम से नवाब साहब का एक पुत्र 25 मई 1831 को पैदा हुआ, जिसे नवाब मिर्ज़ा नाम दिया गया और जो बाद में वास्तविक रूप में दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध शायर हुए।
विलियम फ्रेजर वज़ीर पर बुरी निगाह रखता, वह उसे बाज़ारू औरत समझता था। इससे नाराज़ होकर नवाब ने उसका क़त्ल करा दिया। इस अपराध में नवाब को फांसी दे दी जाती है।
स्त्री जीवन की विडंबना और विवशता तथा पारंपरिक छबि के बरक्स कथाकार ने वज़ीर के रूप में उसकी मज़बूती, स्वनिर्णय और आत्मनिर्भरता में चित्रित किया है। खालिस अरबी-फारसी के शेरों का अर्थ उपन्यास में जगह-जगह दिया गया है, फिर भी अनेक शब्दों का अर्थ पाठक को खोजना पड़ता है। इसका आशय है कि पाठक को हिंदुस्तानी शब्दों से सामान्यतः परिचित होना ही चाहिए। भाषा की रवानगी उपन्यास से जाती न रहे, शायद अनुवादक नरेश ‘नदीम’ ने इसीलिए मूल गद्य से छेड़खानी उचित न समझी हो।
विलियम फ्रेजर की हत्या होने के प्रसंग में फ़ारुक़ीजी बंदूकों का वर्णन करने लगते हैं। बंदूकों की कील और पुर्जों का वर्णन वे ऐसे करते हैं जैसे कोई आयुध निर्माणी कार्यशाला से होकर आए हों। संक्षिप्ताक्षरों का विस्तार करते हैं यथा डीबीबीएल का पूरा रूप है डबल बैरल्ड ब्रीच लोडिंग। हिंदी में जिसे दोनाली, क़राबीन या रिफल या दोगाड़ा कहते थे। बेधरमी इसे अंग्रेजो द्वारा भारत लाए जाने के कारण कहा गया। ‘भरमारू’ बंदूक में बारूद और गोली नाली की राह से भरी जाती थी। क़राबीन फ्रांसीसी बंदूक थी, जिसे अंग्रेजी और फ्रेंच में कारबाइन कहा जाता है। इन हथियारों को चलाने और उनकी मारक क्षमता सहित अन्य गुण-दोषों का वर्णन कथाकार ने इस प्रसंग में किया है। जिस क़रीमखां से नवाब शमसुद्दीन ने विलियम फ्रेजर की हत्या करवाई, उसे अंग्रेजों ने थर्ड डिग्री दी, फिर भी क़रीमखां ने शमसुद्दीन का नाम नहीं लिया। यद्यपि अंग्रेजों की अदालत ने 26 वर्षीय शमसुद्दीन अहमद को फांसी की सज़ा दे दी।
वज़ीर ख़ानम एक बार फिर विधवा हो गई। वह सोचती है यह दुनिया पुरुष की दासी और स्त्री की शत्रु है। यह ऐसा भंवरजाल है जिससे निकल पाना असंभव है। इस निराशा के बीच उसकी मंझली बाज़ी उम्दा ख़ानम उसको शिया समुदाय के आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली के साथ रखना चाहती है। इस प्रसंग में उम्दा का वज़ीर के साथ जो संवाद चलता है, वह स्त्री चेतना को मज़बूत तर्काें के साथ पाठक के सामने लाता है। वज़ीर, मंझली बाज़ी, जहांगीरा बेगम और आग़ा साहब की इच्छा और शर्त��
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